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मेरे प्रिय कवि - तुलसीदास




रूपरेखा:- 1. प्रस्तावना, 2. कवि की परिभाषा और महत्व, 3. तुलसी का जीवन चरित, 4. तुलसी की रचनाएँ और मानस का महत्ता, 5. तुलसी की रामभक्ति, 6. तुलसी की साहित्यिक विशेषता, 7. तुलसी की महानता और 8. उपसंहार।


प्रस्तावना:- कई ऐसे शौक हैं जिनसे मनुष्य बहुत अधिक प्रभावित होता है। एक शौक है साहित्य का अध्ययन । पर एक कवि से वह अत्यधिक प्रभावित होता है और वह उसी को अपना प्रिय कवि मान लेता है। इस विचारसे मेरेप्रिय कवि हैं हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि और राम-कथा-गायक गोस्वामी तुलसीदासजी।


कविकीपरिभाषा औरमहत्व- “जहाँ न पहुँचे रविवहाँ पहुँचे कवि"कवि समस्त मानवता को प्राण देनेवाला सजग प्रहरी (पहरेदार) है। सोये हुए मानव समाज को जगाकर नया जीवन फूंकने की शक्ति कवि में ही होती है वह युग-दृष्टा होता है। वह अतीत का गौरव गाकर वर्तमान का चित्र बनाता है और भविष्य की सही राह दिखाता है। गांधी जी के शब्दों में “कवि के अर्थ का अंत ही नहीं है। उसके महावाक्यों के अर्थ का विकास होता ही रहता है।" विनोबाजी के शब्दों में “कवि हृदय-सम्राट होने के कारण विश्व-सम्राट होता है।” कवि कविता लिखते समय अलौकिक मानव बन जाता है। उसकी वाणी ही राष्ट्रीय जन-जीवन को गति देती है। किसी देश का विकास या पतन उस देश के कवि पर ही निर्भर है।


तुलसी का जीवन चरित :- तुलसीदासजी का जन्म सन् 1532 ई में राजापुर गाँव में हुआ। इनके पिता का नाम आत्माराम था और माँ का नाम हुलसी था। रत्नावली से इनका विवाह हुआ था। तुलसी अपनी पत्नी को बहुत प्यार करते थे। उसके कहने पर तुलसी ने घर छोड़ दिया और वे रामभक्ति में लीन हो गये। कहते हैं कि हनुमान जी की मदद से इनको भगवान राम के दर्शन हुए थे।


तुलसी की रचनाएँ और मानस की महत्ता:- तुलसीदास ने हिन्दी में रामायण लिखी। उसका पूरा नाम “ श्री रामचरितमानस" है। यह उनका सबसे अधिक प्रसिद्ध और लोक-प्रिय ग्रंथ है। यह संसार के श्रेष्ठ साहित्यों में गिना जाता है। इसी से वे हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि और कवि सम्राट'माने जाते हैं।


मानस में शिष्टाचार, माता-पिता के प्रति पुत्र के कर्तव्य, गुरु के प्रति शिष्य के कर्तव्य, पति-पत्नी, राजा-प्रजा के कर्तव्य, रीति-नीति, आचारव्यवहार-ये सारी बातें बताई गई हैं। जीवन को पवित्र बनाने वाली ऐसी कोई बात नहीं जो इसमें नहीं बताई गई हो। उत्तर भारत में पढ़े-बिना पढ़े अमीर-गरीब, बड़े-छोटे, स्त्री-पुरुष ये सब, महलों से लेकर झोपड़ियों तक, इसे पढ़ते हैं और अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार इस को समझकर अपनी आत्मा को तृप्त करते हैं। उत्तर भारत में हिन्दुओं का ऐसा कोई घर न होगा जहाँ तुलसी रामायण न पढ़ते हों। यह सबसे पहले उनके लिए धर्म ग्रंथ है। इसने कितने ही लोगों के जीवन को सुधारा है। मानस की महिमा के बारे में श्री बेनी कवि के कितने सुंदर विचार हैं - देखिए -


'वेद मत सोधि सोधि बोध के पुरान सबै, संत औ असंतन को भेद को बताबतो ? कपटी कुसही कर कलि के कुचाली जीव, कौन राम नाम हूँ की चरचा चलावतो ? 'बेनी' कवि कहै मानो-मानो हो प्रतीति यह, पाहन हिये में कौन प्रेम उमगावतो? भारी भवसागर उतारतो कवन पार, जो पै यह रामायण तुलसी न गावतो॥"


संस्कृत के सभी ग्रंथ जन साधारण की समझ के बाहर थे, उनका पठन-पाठन थोड़े पंड़ितों के लिए रह गया था। ऐसी हालत में तुलसी ने सारे शास्त्रों और दर्शनों को मथकर जो नवनीत (मक्खन) निकाला उसे हिन्दी में अर्पित कर दिया। इस प्रकार तुलसी ने मानस की रचना करके संसार पर बहुत बड़ा उपकार किया है।


तुलसीदासजी की अन्य प्रसिद्ध रचनाएँ हैं – विनय पत्रिका, गीतावली, कवितावली, दोहावली आदि। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को समर्पित भारतेंदु हरिश्चन्द्र के पुस्तकालय “सरस्वती भण्डार" में गीता का एक ऐसा अनुवाद है जिसके बारे में बताया जाता है कि वह गोस्वामी तुलसीदासजी ने किया था। (दे- साप्ताहिक हिन्दुस्तान अंक 23.4.67)


तुलसी की रामभक्ति:- तुलसीदास जी कवि ही नहीं, अनन्य रामभक्त थे। उनकी रामभक्ति मानवता की उत्तम कल्पना पर आधारित है। उनके राम वास्तविक अर्थों में मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और उनके रूप की कल्पना तुलसीदास से बढ़कर और कोई नहीं कर सका । यही कारण है कि सारे रामकाव्यों में तुलसी के राम का अपना ऊँचा स्थान है।


- तुलसी की साहित्यिक विशेषता तुलसीदासजी सफल कलाकार થે । उन्होंने प्रबंध काव्य के दोनों रूपों में उत्तम रचनाएँ की हैं। उनका रामचरितमानस तो संसार के सर्वश्रेष्ठ काव्यों में गिना जाता है। जानकीमंगल और पार्वती-मंगल उनके सरस खंड काव्य हैं। मुक्तक काव्य के भी दोनों रूपों में उन्होंने उत्तम रचनाएँकी हैं। उनकी विनयपत्रिका' गीतिकाव्य का परम उत्तम उदाहरण है। उसमें उनके विनय संबंधी गीत संसार के श्रेष्ठ आत्म-निवेदन साहित्य में गिने जाते हैं। उनकी गीतावली और कृष्णगीतावली में कला के उदाहरण हैं। कवितावली मुक्तक-शिल्प का उत्तम उदाहरण है।


तुलसी ने अपने समय की दोनों प्रचलित भाषाओं में -अवधी और व्रजभाषा-रचनाएँ की हैं। उन्होंने प्रबंध काव्यों को अवधी में लिखा और मुक्तक काव्यों को व्रजभाषा में लिखा।


तुलसीदासजी महान संगीतज्ञ भी थे। वे गीतों की रचना इस प्रकार करते थे जैसे संगीत के लिए ही प्रस्तुत की जा रही हों। इनके गीतों का साहित्यिक स्तर संगीतिकता के खंडित नहीं करता। इसलिए इनके गीतों में स्वर, माधुर्य एवं ताल पद्धति का त्रिवेणी संगम उपस्थित हो गया है।"


तुलसीकी महानता:- तुलसीदास की महानता के बारे में विचार करना समुद्र में गोता लगाने के समान है। जितना गहरे पैठेंगे उतने ही मोती पायेंगे। उनके साहित्य पर सैकड़ों पुस्तकें लिखी गई हैं। उनकी रामायण की सौ से अधिक टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं। फर्रुखाबाद के वासी और कनौज के चे.डी.हाई स्कूल के अध्यापक पं. बाबूराम शुक्ल ने मानस के उत्तर काण्ड के इस अर्ध चौपाईं


सब कर मत रखग नायक! एहा।


करिय राम पद पंकज नेहा॥" के सोलह लाख पचहत्तर हजार एक सौ छियालीस (16,75,146) अर्थ बताये हैं। (दे. साप्ताहिक हिंदुस्तान अंक


23.7.67) मानस का एक प्रसिद्ध दोहा है


जड़ चेतन गुन दोषमय, विश्व कीन्ह करतार। संत हंस गुण गहहिं पय, परिहरि वारि विकार॥"


- यानी संसार की सभी जड़-चेतन वस्तुओं को भगवान ने गुण-दोष मय बनाया है। जैसे हंस पक्षी जल को छोड़कर केवल दूध को लेता है उसी तरह संत लोग भी दोष को छोड़कर गुण को अपनाते हैं। सांसारिक जीवन का कितना महान सत्य है इस दोहे में ! यह सभी देशों धर्मो और कालों में अनुकरणीय है। तुलसी ने अपनी रामायण में भी यही प्रयत्न किया है। रामायण की हर पंक्ति में सभी चरित्रों के चित्रण में उन्होंने दोषों को छोड़कर गुणों को ही अपनाया। मेरे विचार में ये पंक्तियाँ विश्व साहित्य में उत्तम और आदर्श पंक्तियाँ हैं।


उपसंहार:- तुलसीदास ने भारतीय, विशेष कर हिंदुसंस्कृति की रक्षा में जो योगदान दिया है वह अपूर्व है


"न भूतो न भविष्यति"


आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ कवि श्री जयशंकर प्रसादजी के शब्दों में तुलसी ने सार रूप में जो किया वह इस प्रकार हैं"प्रभुका निर्भय सेवक था, स्वामी था अपना। जाग चुका था, जग था जिसके आगे सपना।। प्रबल प्रचारक था, जो उस प्रभुको प्रभुता का। अनुभव था संपूर्ण जिसे उसको विभुता का॥ राम छोड़कर और की, जिसने कभी न आस की। 'रामचरितमानस-कमल 'जय हो तुलसीदास की॥"

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